Shani Pradosh Vrat Katha: शनि प्रदोष व्रत कथा
Shani Pradosh Vrat Katha: प्रदोष व्रत प्रत्येक महीने शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी तिथि को पड़ता है। इस दिन प्रदोष व्रत की कथा को पड़ने या सुनने से भगवान् शंकर और शनि देव का आशीर्वाद प्राप्त होता है।
ॐ नमः शिवाय ! प्रदोष व्रत के दिन भगवान शिव और माता पार्वती की पूजा अर्चना करने से कही गुना ज्यादा फल प्राप्त होता है। शनिबार के दिन पड़ने वाले प्रदोष व्रत को शनि प्रदोष कहा जाता है। इस दिन भगवन शंकर के साथ न्या के देवता शनिदेव की पूजा करने से दोगुना फल प्राप्त होता है। और इस दिन शनि प्रदोष व्रत की कथा भी जरूर पड़नी या सुननी चाहिए। कलियुग में प्रदोष व्रत कथा का पाठ सर्व फलदायक होने के साथ मुक्तिदायक भी है।
शनिवार त्रयोदशी (शनि प्रदोष) व्रत कथा (Shani Pradosh Vrat katha)
पुरातन कथा है कि एक निर्धन ब्राह्मण की स्त्री दरिद्रता से दुःखी हो शांडिल्य ऋषि के पास जाकर बोली- हे महामुने! मैं अत्यन्त दुःखी हूँ दुःख निवारण का उपाय बतलाइये। मेरे दोनों पुत्र आपकी शरण में हैं । मेरे ज्येष्ठ पुत्र का नाम धर्म है जो कि राजपुत्र है और लघु पुत्र का नाम शुचिव्रत है अतः हम दरिद्री हैं, आप ही हमारा उद्धार कर सकते हैं, इतनी बात सुन ऋषि ने शनि प्रदोष व्रत करने के लिए कहा।
तीनों प्राणी प्रदोष व्रत करने लगे। कुछ समय पश्चात्। प्रदोष व्रत आया तब तीनों ने व्रत का संकल्प लिया। छोटा लड़का जिसका नाम शुचिव्रत था एक तालाब पर स्नान करने को गया तो उसे मार्ग में स्वर्ण कलश धन से भरपूर मिला, उसको लेकर वह घर आया, प्रसन्न हो माता से कहा कि माँ! यह धन मार्ग से प्राप्त हुआ है, माता ने धन देखकर शिव महिमा का वर्णन किया।
राजपुत्र को अपने पास बुलाकर बोली देखो पुत्र, यह धन हमें शिवजी की कृपा से प्राप्त हुआ है । अत: प्रसाद के रूप में दोनों पुत्र आधा- आधा बाँट लो, माता का वचन सुन राजपुत्र ने शिव-पार्वती का ध्यान किया और बोला – पूज्य यह धन आपके पुत्र का ही है मैं इसका अधिकारी नहीं हूँ । मुझे शंकर भगवान और माता पार्वती जब देंगे तब लूँगा । इतना कहकर वह राजपुत्र शंकर जी की पूजा में लग गया, एक दिन दोनों भाईयों का प्रदेश भ्रमण का विचार हुआ, वहाँ उन्होंने अनेक गन्धर्व कन्याओं को क्रीड़ा करते हुए देखा, उन्हें देख शुचिव्रत ने कहा- भैया अब हमें इससे आगे नहीं जाना है, इतना कह शुचिव्रत उसी स्थान पर बैठ गया, परन्तु राजपुत्र अकेला ही स्त्रियों के बीच में जा पहुँचा।
वहाँ एक स्त्री अति सुन्दरी राजकुमार को देख मोहित हो गई और राजपुत्र के पास पहुँचकर कहने लगी कि हे सखियों ! इस वन के समीप ही जो दूसरा वन है तुम वहाँ जाकर देखो भाँति-भाँति के पुष्प खिले हैं, बड़ा सुहावना समय है, उसकी शोभा देखकर आओ, मैं यहाँ बैठी हूँ, मेरे पैर में बहुत पीड़ा है । ये सुन सब सखियाँ दूसरे वन में चली गयीं। वह अकेली सुन्दर राजकुमार की ओर देखती रही। इधर राजकुमार भी कामुक दृष्टि से निहारने लगा, युवती बोली- आप कहाँ रहते हैं ? वन में कैसे पधारे ? किस राजा के पुत्र हैं ? क्या नाम है ? राजकुमार बोला- मैं विदर्भ नरेश का पुत्र हूँ, आप अपना परिचय दें । युवती बोली- मैं बिद्रविक नामक गन्धर्व की पुत्री हूँ, मेरा नाम अंशुमति है मैंने आपकी मनःस्थिति को जान लिया है कि आप मुझ पर मोहित हैं, विधाता ने हमारा तुम्हारा संयोग मिलाया है। युवती ने मोतियों का हार राजकुमार के गले में डाल दिया। राजकुमार हार स्वीकार करते हुए बोला कि हे भद्रे ! मैंने आपका प्रेमोपहार स्वीकार कर लिया है, परन्तु मैं निर्धन हूँ । राजकुमार के इन वचनों को सुनकर गन्धर्व कन्या बोली कि मैं जैसा कह चुकी हूँ वैसा ही करूंगी, अब आप अपने घर जायें । इतना कहकर वह गन्धर्व कन्या सखियों से जा मिली । घर जाकर राजकुमार ने शुचिव्रत को सारा वृतांत कह सुनाया ।
जब तीसरा दिन आया वह राजपुत्र शुचिव्रत को लेकर उसी वन में जा पहुँचा, वही गन्धर्व राज अपनी कन्या को लेकर आ पहुँचा। इन दोनों राजकुमारों को देख आसन दे कहा कि मैं कैलाश पर गया था वहाँ शंकर जी ने मुझसे कहा कि धर्मगुप्त नाम का राजपुत्र है जो इस समय राज्य विहीन निर्धन है, मेरा परम भक्त है, हे गन्धर्व राज ! तुम उसकी सहायता करो, मैं महादेव जी की आज्ञा से इस कन्या को आपके पास लाया हूँ । आप इसका निर्वाह करें, मैं आपकी सहायता कर आपको राजगद्दी पर बिठा दूँगा। इस प्रकार गन्धर्व राज ने कन्या का विधिवत विवाह कर दिया।
विशेष धन और सुन्दर गन्धर्व कन्या को पाकर राजपुत्र अति प्रसन्न हुआ । भगवत कृपा से वह समयोपरान्त अपने शत्रुओं को दमन करके राज्य का सुख भोगने लगा ।